
खुशकिस्मती से गुफा में कुछ सूखी लकड़ियां मिल गयी तो आग का प्रबन्ध भी कर लिया, जो यहाँ पर रहने वाले बकरी के चरवाहों ने किया था होगा। लकड़ियां कम थी तो हममें से कुछ लोग आस -पास लकड़ियां इक्कठा करने में लग गए और कुछ लोग चाय बनानें में। अंधेरा हो चुका था, अब बदन के बारिश से गीले हो चुके कपड़े भी आग के सहारे सूख चुके थे। अब सब लोग खाना बनाने में जुट चुके थे। सभी लोग चुटकुले व यात्रा के खट्टे मीठे अनुभवों को साझा कर रहे थे।
अगले दिन सुबह उठकर पुनः आगे की यात्रा से पूर्व नास्ता तैयार कर पास के गुफा को ढूंढा गया । जहाँ कुछ पुराने सिक्के व पांडवों के अस्त्र -शस्त्र रखे हुए है। माना जाता है कि शिब जी की खोज में मद्यमहेश्वर के बाद जब पांडव शिब जी के पीछे-पीछे यहां तक पहुँचे थे तो इस जगह पर पांडवो ने अन्न के रूप में धान उपजाया था।
तभी से इस जगह का नाम पाण्डवसेरा पड़ा। आज भी जिस तरह धान की रोपाई हेतु खेत तैयार किया जाता है, ठीक उसी तरह यहां भी दिखता है। अब हम आगे बढ़ चुके थे पर डर था कि पाण्डवसेरा के दूसरी तरफ वाले नदी में भी पुल बह गया हो तो वहाँ नदी पार करना मुश्किल हो जायेगा, क्योकि साथ में गाईड का काम कर रहे मातवर सिंह चौहान ने बताया कि उस तरफ की नदी एकदम चट्टान वाली ढाल में बहुत तेज बहाव से बहती है, और घाटी बहुत संकरी है। पर जब हम नदी पर पहुँचे तो नदी पर बना अस्थायी लकड़ी का पुल मौजूद था। अगर यहाँ पर पुल नही होता तो हमें शायद वही से वापस नन्दीकुंड से होते हुए वापस आना पड़ सकता था, जो कि बहुत मुस्किल होता। यहाँ से एकबार फिर चढ़ाई का रास्ता शुरू हो चुका था पर यहाँ से रास्ता चौड़ा और एकदम खड़ी चढ़ाई ना होकर कैचींनुमा बना हुआ है। अब हम लोग काफी चलने के बाद काँचनी टॉप पर पहुँच चुके थे। पास के चट्टानों पर घुरड़ दिखायी दे रहें थे।और कुछ मोनाल आसपास हलचल होने पर आवाज करते हुऐ हल्के आसमान में उड़ रहे थे। कुछ देर आराम करने के बाद अब आगे का रास्ता अब हमें मद्यमहेश्वर के ऊपरी भाग के जंगल से होकर पहुँचना था। अब हम कुछ ही देर में मद्यमहेश्वर पहुँचने वाले थे, रास्ता काफी आसान सा हो गया था चलने के लिए। कुछ देर में मद्यमहेश्वर मंदिर में पहुँच कर दर्शन किये वहाँ पुजारी जी से बातें की और दर्शन के बाद पास के ढाबे पर बैठकर चाय पी। समय भी लगभग शाम के 5 बज चुके थे। उसके बाद हम लोग राँसी गाँव के लिए आगे बढ़ चुके थे। रात के लगभग 8 बज चुके थे जब हम अपने चन्द्रप्रकाश पँवार जी के जान पहचान के घर में पहुँचे। अब थकान भी काफी थी आज लंबा रास्ता तय किया था। फिर भी विना पूर्व सूचना के द्वारा उनके द्वारा किया गया अथिति सत्कार आजीवन याद रहेगा। अगले दिन प्रातः उठकर हम लोग कालीमठ के लिए निकल चुके थे।
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