उर्गम घाटी (urgam valley) धार्मिक व प्रकृति पर्यटन का अनूठा संगम


राष्ट्रीय राजमार्ग 58 पर ऋषिकेश से हेलंग 240 किमी (जोशीमठ से 13 किमी पहले) दूरी तय करने के बाद यहाँ पर बद्रीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग को छोड़कर बायीं ओर मुड़ने के साथ ही अलकनंदा नदी बद्रीनाथ से निकलने वाली, कर्मनाशा नदी प्रणखंडेश्वरी गड़ी माता मंदिर के पश्चिम भाग से बहने वाली और उर्गम के कल्पेश्वर महादेव से निकलने वाली नदी कल्पगंगा जिन्हें हिरण्यावती के नाम से भी जाना जाता है, के संगम त्रिवैणी पर बने पुल को पार करते ही उर्गम घाटी की सुरम्य वादियों में पहुँच जाते है। हेलंग से उर्गम तक पहुँचने के लिए 14 किमी जीप या छोटी गाड़ियों से आसानी से पहुँचा जा सकता है। Realme mobile


रास्ते के जंगल जिसमें प्रमुखतः चीड़, बांज, बुराँस  के पेड़ों को पार करते ही ल्यांरी गाँव पहुँचने पर सामने उर्गम घाटी का बड़ा ही सुन्दर मनोरम दृश्य नजर आने लगता है। दूर-दूर तक फैले हुए गाँव, समतल घाटी और प्रकृति का हरितिमा ओढ़े हुए नजारा बड़ा ही खूबसूरत दिखता है। 

समुद्रतल से लगभग 2,100 मीटर की ऊँचाई पर बसी हुई उर्गम घाटी की जनसंख्या लगभग 5000 है। इस घाटी में पाँच ग्राम पंचायतें है, जिसमें 15 उपगाँव हैं। देवग्राम के बांसा गाँव में उर्वा ऋषि आश्रम है, जहाँ पर ऋषि और्वा ने तपस्या की थी उन्ही के नाम पर इस घाटी का नाम उर्गम पड़ा। गढ़वाल का प्रारंभिक इतिहास कत्यूरी राजाओं का है, जिन्होंने जोशीमठ से शासन किया और वहां से 11वीं सदी में अल्मोड़ा चले गये। गढ़वाल से उनके हटने से कई छोटे गढ़पतियों का उदय हुआ। Man tshirt combo pack उर्गम घाटी से लगभग 5 किमी दूरी पर पहाड़ की चोटी पर पल्ला गढ में आज भी पत्थरों के खंडहर, किलेनुमा छोटे-छोटे घर, बड़े पत्थर पर बनायी गयी ओखलिया, ल्यारी गाँव के पास मुख्य सड़क पर बना हुआ पंचधारा (पत्थरों से बनी हुई पाँच पानी की धारा) और कल्पेश्वर मंदिर से 2 किमी ऊपर भरकी गाँव से पहले दोगड़ा गाँव में बूंगी गढ़ बड़े-बड़े कटे हुए पत्थरों के अवशेष खंडहर कत्यूरी शासकों के इतिहास को ताजा करता है।


उर्गम घाटी प्रकृति पर्यटन के साथ-साथ धार्मिक पर्यटन के लिए भी प्रसिद्ध है। पंचबद्री के ध्यानबद्री बद्री जी का मंदिर उर्गम गाँव में मुख्य सड़क से 300 मीटर की दूरी पर स्थित है। मंदिर में भगवान विष्णु जी की मूर्ती, वाल कृष्ण जी  और गरुड़ जी स्थापित है। मंदिर में कृष्ण जन्माष्टमी का पर्व बड़े उत्सव के साथ मनाया जाता है। मंदिर के दाहिने ओर शिव जी का मन्दिर भी बना हुआ है। उर्गम घाटी के हर दूसरे वर्ष होने वाले चौपता मेले में मंदिर से ही कृष्ण जी और गरुड़ जी मूर्ति मेले के आकर्षण का केंद्र होती है। यही पर 200 मीटर की दूरी पर भूमि क्षेत्रपाल श्री घंटाकर्ण जी का मंदिर भी है। यहाँ से 1 किमी की दूरी पर देवग्राम गाँव है।

देवग्राम के पास ही पंचकेदार के पाँचवे केदार श्री कल्पेश्वर महादेव जी का प्रसिद्ध मंंदिर है। जो कि पाण्डवों द्वारा एक बड़े गुफा मे मन्दिर स्थापित किया गया है। कल्पेश्वर मंदिर के पूर्व के पूर्व में कल्पगंगा के तट पर प्रसिद्ध भैरवनाथ जी का मंदिर भी है।  विस्तृत जानकारी के लिए पूर्व में कल्पेश्वर मंदिर पर लिखे गए लेख का लिंक देखें।


लोकमान्यताओ के अनुसार देवग्राम गाँव में देवी देवताओं के 360 से अधिक मंदिर थे। इसीलिये यहाँ का नाम देवग्राम पड़ा, परन्तु 1803 से पहले धौला से आयी आपदा के कारण सारे मंदिर मलबे में दब गये थे। बाद में खुदाई के दौरान मिले 100 से अधिक पत्थर की मूर्तियों को देवग्राम के गौरा मंदिर में रखे गये थे। परन्तु वर्ष 2013 की आपदा के बाद से अब कुछ ही मूर्तियाँ मंदिर में बचीं हुई है। मंदिर में आज भी एक बहुत बड़े विशालकाय पत्थर से बना हुआ शेर की मूर्ति भी विराजमान है। यही पर एक विशाल देवदार का हजारों वर्ष पुराना कल्पवृक्ष भी है।

 देवग्राम गाँव के पूर्व में केदार मंदिर है, यहाँ पर शिवलिंग की आकृति केदारनाथ मंदिर के शिवलिंग की तरह है। पूर्व में यहाँ पर एक जल कुण्ड हुआ करता था, और जो परिवार बद्रीनाथ और केदारनाथ की यात्रा नही कर पाते थे, यही पर अपने पित्रों का तर्पण करते थे। गाँव के बीच में ही अमृत कुण्ड का पवित्र कुण्ड व दुर्मा तोक मे दुर्वासा ऋषि का आश्रम था, यही पर देवराज इन्द्र को श्राप मिला था। तब इन्द्र ने भवँरे का रूप धारण कर देवग्राम के ऊपरी भाग में एक गुफा में तप किया था, गुफा आज भी विद्यमान है। यहाँ पर रति कुण्ड में कामदेव को वापस पाने के लिए देवी रति ने शिव जी की तपस्या की थी। इन सबका वर्णन केदारखण्ड में भी दिया गया है।
Women clothes लोक संस्कृति की धनी इस घाटी में वर्षभर किसी न किसी तरह के लोक मेले आयोजित होते है, जिसमें प्रमुखतः जागर गायन व ढोल बादन के द्वारा देवरा मेले, मनो मेले, चौपता मेला, नाग सिद्ववा, जीतू बगडवाल व पांडव नृत्य, नंदा जात मेला व नो दिवसीय शिव गौरा विवाह मेले आयोजित होते हैं। 

जैविक उत्पाद के लिए भी उर्गम घाटी काफी मशहूर है, जिसमें जैविक दालें राजमा, चौलाई, सोयावीन, मंडुवा, शहद के साथ-साथ कई तरह की औषधीय जड़ी -बूटियाँ भी उत्पादन होती है। यहाँ पहुँचकर पहाड़ी शुद्ध लजीज खाने का आनन्द लिया जा सकता है। अप्रैल मई के बाद यहाँ का मौसम सुहावना हो जाता है , वही अक्टूबर के बाद ठंड बढ़ने के साथ-साथ दिसम्बर जनवरी में बर्फबारी भी शुरू हो जाती है। 

बंशीनारायन मंदिर जहाँ साल भर में एक दिन खुलते है कपाट

                   बंशीनारायन मंदिर
वंशीनारायन मंदिर चमोली जिले के उर्गम घाटी से लगभग 13 हजार फीट की ऊंचाई पर मध्य हिमालय के बुग्याल क्षेत्र में स्थित है। मान्याता है कि इस मंदिर में देवऋषि नारद 364 दिन भगवान नारायण की पूजा अर्चना करते हैं और यहां पर मनुष्यों को पूजा करने का अधिकार सिर्फ एक दिन के लिए ही है। 
 उर्गम घाटी में स्थित भगवान विष्णु के वंशीनारायन मंदिर जो सिर्फ रक्षा बंधन के मौके पर ही खुलता है। मंदिर तक पहुंचने के लिए लगभग 12 किमी तक पैदल चलना होता है। रक्षा बंधन के दिन यहां महिलाओं की बहुत भीड़ रहती हैं क्योंकि, महिलाएं इस दिन भगवान विष्णु को राखी बांधने यहां पहुंचती है । 
उर्गम घाटी तक वाहन से पहुंचने के बाद आगे 12 किलोमीटर का सफर पैदल ट्रेक करना पड़ता है। पांच किलोमीटर दूर तक फैले मखमली घास के मैदानों, बुग्याल को पार कर सामने नजर आता है प्रसिद्ध पहाड़ी शैली कत्यूरी में बना वंशीनारायन मंदिर में भगवान विष्णु जी की चतुर्भुज मूर्ति विराजमान है। यहां मंदिर के पुजारी राजपूत है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इस मंदिर का निर्माण पांडव काल में हुआ था। लोक कथानुसार एक बार राजा बलि ने भगवान विष्णु से आग्रह किया कि वह उनके द्वारपाल बने।भगवान विष्णु ने राजा बलि के इस आग्रह को स्वीकार कर लिया और वह राजा बलि के साथ पाताल लोक चले गए। भगवान विष्णु के कई दिनों तक दर्शन न होने कारण माता लक्ष्मी परेशान हो गई और वह नारद मुनि के पास गई। 
                      उर्गम घाटी
नारद मुनि के पास पहुंचकर उन्होंने माता लक्ष्मी से पूछा के भगवान विष्णु कहां पर है। जिसके बाद नारद मुनि ने माता लक्ष्मी को बताया कि वह पाताल लोक में हैं और द्वारपाल बने हुए हैं। नारद मुनि ने माता लक्ष्मी को भगवान विष्णु को वापस लाने का उपाय भी बताया । उन्होंने कहा कि आप श्रावण मास की पूर्णिमा को पाताल लोक में जाएं और राजा बलि की कलाई पर रक्षासूत्र बांध दें। रक्षासूत्र बांधने के बाद राजा बलि से वापस उन्हें मांग लें। इस पर माता लक्ष्मी ने कहां कि मुझे पाताल लोक जानें का रास्ता नहीं पता क्या आप मेरे साथ पाताल लोक चलेंगे। इस पर उन्होंने माता लक्ष्मी के आग्रह को स्वीकार कर लिया और वह उनके साथ पाताल लोक चले गए। 
पति को मुक्त कराने के लिए देवी लक्ष्मी पाताल लोक पहुंची और राजा बलि के राखी बांधकर भगवान को मुक्त कराया। जिसके बाद नारद मुनि की अनुपस्थिति में कलगोठ गांव के पुजारी ने वंशीनारायण की पूजा की तब से ही यह परंपरा चली आ रही है। रक्षाबंधन के दिन कलगोठ गांव के प्रत्येक घर से भगवान नारायण के लिए मक्खन, दूध और सत्तू आता है। इसी से वहां पर प्रसाद तैयार होता है। भगवान वंशीनारायन की फूलवारी में कई दुर्लभ प्रजाति के फूल खिलते हैं। इस मंदिर में 
श्रावन पूर्णिमा पर भगवान नारायण का श्रृंगार भी होता है। इसके बाद गांव के लोग भगवान नारायण को रक्षासूत्र बांधते हैं। मंदिर में ठाकुर जाति के पुजारी होते हैं। चमोली जिले के उर्गम घाटी में स्थित “वंशीनारायन मंदिर की खास बात यह है कि इस मंदिर की प्रतिमा में भगवान नारायण और भगवान शिव दोनों के ही दर्शन होते हैं। वंशी नारायण मंदिर में भगवान गणेश और वन देवियों की मूर्तियां भी मौजूद हैं।

बंशीनारायन कैसे पहुँचे:-

ऋषिकेश से जोशीमठ की दूरी लगभग 255 किमी तक बस, बाइक व अन्य मोटर वाहन के माध्यम से पंहुचा जा सकता है। जोशीमठ पहुँचने से 13 किमी पूर्व हेलंग से उर्गम घाटी तक 14 किमी जीप या छोटे वाहनों से पहुंचा जा सकता है। इस घाटी में पर्यटकों की सुविधा हेतु स्थानीय लोगों के होम स्टे उपलब्ध है।
 उर्गम, देवग्राम से लगभग 12 किमी पैदल चलकर वंशिनारायन मंदिर पहुँचा जा सकता है।

उर्गम से नन्दीकुंड, पाण्डवसेरा मद्यमहेश्वर यात्रा शेष भाग.......


शाम के लगभग 3.00 बज चुके थे हम लोगों ने नन्दीकुंड सरोवर पर कुछ देर रुककर प्रकृति का आनन्द लिया।यहाँ मां नंदा का बहुत ही दिव्य स्थान है, उर्गम घाटी में जब भी कोई बड़े मेलों का आयोजन किया जाता है तो उस वर्ष ब्रह्म कमल लेने को और मेले हेतु माँ नंदा का बुलावे हेतु नंदा राज जात यहाँ आती है। सरोवर में स्नान और माँ का ध्यान कर अब हम निकलने की तैयारी में थे तो एक बार फिर से बहुत जोरो की बारिश होनी शुरू हो चुकी थी। माना जाता है कि इस स्थान पर ज्यादा देर रुकना नही चाहिए। तेज होती जा रही बारिश से हम लोग अब सरोवर के एक किनारे से बाहर निकलने वाले पानी के सहारे नीचे की तरफ तेज -तेज कदमों के साथ बढ़ रहे थे। हम लोग काफी भीग चुके थे ढ़लान पर  नन्दीकुंड सरोवर से काफी दूर पहुँचने के बाद हम लोगों ने थोड़ा आराम के लिए एक छोटे गुफानुमा पत्थर की ओट ढूंढ ली थी और अब वहाँ पर बैठकर बारिश के थमने का इंतजार करने लगें। बारिश से तरबतर और ठंड से काँपने के बाद भी थकान के कारण और पत्थर के ओट की हल्की  गर्मी मिलने के कारण हल्की आँखे भी लग रही थी। लगभग 1 घण्टे इंतजार के बाद अब बारिश रुक चुकी थी। और हमें आज रात के लिए पाण्डवसेरा पहुँचना जरूरी था क्योकि नन्दीकुंड से पाण्डवसेरा के बीच में रुकने के लिए कही कोई आश्रय नही था। अब लगभग 5 बज चुके थे, थोड़ी देर ढलान पर और चलने के बाद पाण्डवसेरा नदी और मैदान दिखाई दिया तो आज की मंजिल पर जल्दी पहुँचने की आस बंध चुकी थी। पर हम लोग जैसे ही नदी तक पहुँचे तो एक बार फिर निराशा हाथ लगी कि नदी का अस्थायी पुल बह चुका था,पानी काफी ज्यादा और तेज बहाव में था। फिर हम लोग चौड़ी घाटी को खोजने लगे, काफी देर बाद हमको एक जगह पर नदी कुछ समतल और चौड़ी दिखायी दी तो सबने एक दूसरे के हाथों को कसकर पकड़कर एक चैन बनाकर नदी में उतर गए। पानी लगभग घुटनों तक आ रहा था परन्तु चैन बनाकर चलने से नदी को आसानी से पार कर लिया था। अब लगभग अंधेरा होने लगा था तो हम लोगों ने जल्दी-जल्दी पाण्डवसेरा गुफा को ढूंढ लिया था। 
खुशकिस्मती से गुफा में कुछ सूखी लकड़ियां मिल गयी तो आग का प्रबन्ध भी कर लिया, जो यहाँ पर रहने वाले बकरी के चरवाहों ने किया था होगा। लकड़ियां कम थी तो हममें से कुछ लोग आस -पास लकड़ियां इक्कठा करने में लग गए और कुछ लोग चाय बनानें में। अंधेरा हो चुका था, अब बदन के बारिश से गीले हो चुके कपड़े भी आग के सहारे सूख चुके थे। अब सब लोग खाना बनाने में जुट चुके थे। सभी लोग चुटकुले व यात्रा के खट्टे मीठे अनुभवों को साझा कर रहे थे। 
अगले दिन सुबह उठकर पुनः आगे की यात्रा से पूर्व नास्ता तैयार कर पास के गुफा को ढूंढा गया । जहाँ कुछ पुराने सिक्के व पांडवों के अस्त्र -शस्त्र रखे हुए है। माना जाता है कि शिब जी की खोज में मद्यमहेश्वर के बाद जब पांडव शिब जी के पीछे-पीछे यहां तक पहुँचे थे तो इस जगह पर पांडवो ने अन्न के रूप में धान उपजाया था। तभी से इस जगह का नाम पाण्डवसेरा पड़ा। आज भी जिस तरह धान की रोपाई हेतु खेत तैयार किया जाता है, ठीक उसी तरह यहां भी दिखता है। अब हम आगे बढ़ चुके थे पर डर था कि पाण्डवसेरा के दूसरी तरफ वाले नदी में भी पुल बह गया हो तो वहाँ नदी पार करना मुश्किल हो जायेगा, क्योकि साथ में गाईड का काम कर रहे मातवर सिंह चौहान ने बताया कि उस तरफ की नदी एकदम चट्टान वाली ढाल में बहुत तेज बहाव से बहती है, और घाटी बहुत संकरी है। पर जब हम नदी पर पहुँचे तो नदी पर बना अस्थायी लकड़ी का पुल मौजूद था। अगर यहाँ पर पुल नही होता तो हमें शायद वही से वापस नन्दीकुंड से होते हुए वापस आना पड़ सकता था, जो कि बहुत मुस्किल होता। यहाँ से एकबार फिर चढ़ाई का रास्ता शुरू हो चुका था पर यहाँ से रास्ता चौड़ा और एकदम खड़ी चढ़ाई ना होकर कैचींनुमा बना हुआ है। अब हम लोग काफी चलने के बाद काँचनी टॉप पर पहुँच चुके थे। पास के चट्टानों पर घुरड़ दिखायी दे रहें थे।और कुछ मोनाल आसपास हलचल होने पर आवाज करते हुऐ हल्के आसमान में उड़ रहे थे। कुछ देर आराम करने के बाद अब आगे का रास्ता अब हमें मद्यमहेश्वर के ऊपरी भाग के जंगल से होकर पहुँचना था। अब हम कुछ ही देर में मद्यमहेश्वर पहुँचने वाले थे, रास्ता काफी आसान सा हो गया था चलने के लिए। कुछ देर में मद्यमहेश्वर मंदिर में पहुँच कर दर्शन किये वहाँ पुजारी जी से बातें की और दर्शन के बाद पास के ढाबे पर बैठकर चाय पी। समय भी लगभग शाम के 5 बज चुके थे। उसके बाद हम लोग राँसी गाँव के लिए आगे बढ़ चुके थे। रात के लगभग 8 बज चुके थे जब हम अपने चन्द्रप्रकाश पँवार जी के जान पहचान के घर में पहुँचे। अब थकान भी काफी थी आज लंबा रास्ता तय किया था। फिर भी विना पूर्व सूचना के द्वारा उनके द्वारा किया गया अथिति सत्कार आजीवन याद रहेगा। अगले दिन प्रातः उठकर हम लोग कालीमठ के लिए निकल चुके थे।
         फैन कमल

उर्गम से नन्दीकुंड, पाण्डवसेरा मद्यमहेश्वर यात्रा शेष भाग.......


रात देर तक जागने और पिछले दिन की यात्रा के कारण थके होने से आज नींद कुछ देर से खुली। मौसम साफ होने लगा था तो फिर से आज अगले पड़ाव तक जाने का प्लान बना तो, फटाफट सबने मिलकर नास्ता तैयार किया कुछ नास्ता दिन के लिए पैकिंग कर लिया गया। नास्ता करके आगे बढ़ने तक समय काफी निकल चुका था, और यही हम सबका प्लान भी था कि आज ज्यादा दूर तक नही चला जाय क्योंकि बारिश कही ज्यादा हुई तो हम लोग वापस आ सकते हैं। ज्यादा आगे बढ़ जाने से वापस आना भी खतरनाक होगा क्योंकि आगे जो नदियां हम लोगों को पार करनी थी , बारिश के कारण नदी का जल स्तर बढ़ने से पार कर पाना कठिन होता है।पर अब मौसम खुलना शुरू हो चुका था सुर्यदेव भी बादलों के बीच अटखेलियाँ खेल रहे थे। अब हम लोग मैंनवा खाल तक पहुँच चुके थे, आस पास नीचे गहरी घाटी दिखाई दे रहे थे। बस चारों तरफ मखमली घास का बुग्याल दिखायी दे रहे थे, जो कि बहुत मुलायम और नर्म थी। मैंनवा खाल में नंदा राजजात के दौरान उर्गम घाटी की और पंचगे की जात भी होती है। मैंनवा खाल के पास ही ब्रह्म कमल की सुंदर वाटिकाये है। जुलाई के बाद अनेक प्रकार के पुष्प यहाँ खिल जाते है। मैंनवा खाल के एक तरफ नीचे दो बहुत सुंदर तालाब है जिन्हें नंदी कुंड और स्वनूल कुंड के नाम से जाना जाता है। 


यहाँ से अब हम बुग्याल के बीचों बीच सीधी पगडंडी को पकड़ कर आगे बढ़ रहे थे, कुछ ही देर में हमने गोदिला नही पर बने लकड़ी के पुल को पार कर यहाँ पर हल्का नास्ता किया। अब यहाँ से धौलडार तक हल्की चढ़ाई का रास्ता शुरू हो चुका था। धीरे- धीरे ही सही पर अब हम आज की मंजिल तक पहुँच चुके थे। यहाँ पर भी बहुत बड़ा मखमली बुग्याल है, परन्तु हमारे पास टेन्ट न होने के कारण हम लोगो ने मैदान के एक छोर पर बने प्राकृतिक उड़्यार (गुफा) जिसे धौलडार के नाम से जाना जाता है, आज के लिए अपना ठिकाना बना लिया था। और आस पास से ही लकड़ी, पानी की व्यस्था कर लिया। 

            (फोटो साभार# रघुवीर सिंह नेगी)

इसी मैदान के बीच में ही पालसियों (बकरी चरवाहों) का टेन्ट लगा था। अभी यही कोई शाम के 4.00 बज रहा था और बकरियों का झुण्ड मैदान के ऊपर ढलानों पर चुग रही थी, हम लोग यह सोचकर कि चलो थकान मिटाने के लिए पालसियों के टेन्ट पर जाकर चाय पी लिया जाए पर जब हम वहाँ पहुँचे टेन्ट के बाहर सिर्फ एक कुत्ता बैठा था । पालसी अपनी बकरियों के साथ थे। दूर से ही अपने टेन्ट के पास हम लोंगो को देखकर उनमें से एक कुछ ही देर में अपने टेन्ट में आ गए थे, अरे वो रिस्ते में मेरे मामा जी थे जो डुमक गाँव से थे । आज वो इस दुनियाँ में नही है। उनके आते ही हम सब लोगों ने वही पर चाय पी। अब हल्की बारिश शुरू हो चुकी थी। थोड़ी देर में मैदान में सब बकरियां आ गयी थी और वो दूसरे वाले पालसी भी। अब हमारे आज रात के खाने का इंतजाम भी उन्ही के साथ उनके टेन्ट में हो गया था। रात लगभग 9 बजे हम लोग खाना खा कर सोने के लिए वापस धौलडार गुफा में आ गए। हल्की बारिश अभी भी हो रही थी, परन्तु बुग्यालों में कब बारिश हो जाये इसका कोई पता नही रहता। आज के दिन का हम लोगों का पड़ाव छोटा था वो सिर्फ  आगे के मौसम के अंदाजे के लिए की आगे की यात्रा में बारिश कितनी होने वाली है। अगली सुबह फिर से मौसम सुहावना हो चुका था हम लोग सुबह 5 बजे तैयार हो कर आगे के सफर के लिए निकल चुके थे। आज नास्ता नन्दीकुंड पहुँचने के बाद किया जाएगा। हाँ रास्ते की थकान और भूख मिटाने के लिए हमारे पास खाने पीने के लिए पर्याप्त संसाधन थे।

क्रमशः अगले भाग में................

 

उर्गम से नन्दीकुंड, पाण्डवसेरा मद्यमहेश्वर यात्रा


स्मृतियों के पन्नों से...............

वर्ष 2006 की स्मृतियां मन में ताजी हो गयी, जब हम सभी साथी एक साथ काम करते थे तब सब ने मिलकर प्लान तैयार किया कि क्यों न इस वर्ष उर्गम घाटी से नन्दीकुंड, पाण्डवसेरा होते हुए मद्यमहेश्वर और पंचकेदार ट्रैकिंग की जाये। सभी साथियों ने हामी भरी तो तैयारियां भी शुरू हो गयी। इस यात्रा का प्रस्ताव जनदेश के सचिव श्री लक्ष्मण सिंह नेगी जी ने दिया, जो एक बहुत ही जागरूक स्वयंसेवी, धार्मिक और सामाजिक कार्यों के प्रति समर्पित हैं, और वर्तमान में भरकी भूम्याल देवता के पस्वा है। जिन महानुभाव ने सामान इकट्ठा करने में हम सबका सहयोग किया श्री रघुवीर चौहान जी वो अपने कुछ व्यकितगत कारणों से इस ट्रैकिंग को नही कर पाएक। Mobile price upto 10000 इस ट्रैकिंग को करने वालों में हमारे साथी श्री हरीश परमार जी,  जो उसके बाद अपनी ग्राम पंचायत के ग्राम प्रधान और वर्तमान में व्लाक प्रमुख जोशीमठ हैं। दूसरे साथी श्री चन्द्रप्रकाश पँवार जी जिनको हम डॉक्टर साहब के नाम से भी बुलाते है और आज एक शिक्षक के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे है, तीसरे साथी श्री बख्तावर सिंह रावत जी एक अच्छे समाजसेवी के रूप में आपकी पहचान है। और चौथे साथी एक गुरुदेव बसिष्ठ जी थे जो प्राथमिक विद्यालय भरकी में पढ़ाते थे। अब हममें से कभी किसी ने इस ट्रैक को पहले नही किया था तो गाइड के लिए देवग्राम गाँव के श्री मातवर सिंह चौहान को इस यात्रा के लिए गाइड के लिए साथ ले लिया था। मैं इस यात्रा में उम्र,अनुभव और तजुर्बों के आधार पर सबसे छोटा था, परन्तु आप लोगों के साथ तब से लेकर और आज तक आप लोगों के प्यार और स्नेह के कारण कभी ये अहसास ही नही हुआ।


यू तो ये मेरी इतनी लम्बी पहली पैदल यात्रा थी जो  मेरे लिए बेहद ही अविस्मरणीय और रोमांचक थी। सुबह लगभग 10 बजे करीब सभी साथी तैयार हो कर अपने यात्रा पथ पर निकल चुके थे। ऋषि ओरबा की तपोभूमि देवग्राम का बांसा गाँव, जिनकें नाम पर ही इस घाटी का नाम उर्गम नाम से जाना जाता है, से होते हुए मुल्ला खर्क और बरजीक नाले की चढ़ाई को पार करते हुए आगे बढ़ चुके थे। बरजीक टॉप के बाद भोजपत्र के और सेमरू जो की बुराँस प्रजाति की झाड़ी शुरू हो चुकी थी , पार कर हम लोग बंशीनारायन मंदिर में पहुँच चुके थे पर बारिश बहुत जोरो की शुरू हो चुकी थी और हम लोग कुछ निराश भी की आगे कैसे बढेंगे और उच्च हिमालयी बुग्याल में इस सितम्बर के माह में बर्फ गिरनी शुरू हो जाती है। और आगे की यात्रा और भी कठिन फिर मंदिर में दर्शन पूजन के पश्चात हम लोगो ने रात्रि विश्राम हेतु बंशीनारायन के समीप रिखडार उड़ियार जिसे गुफा कहा जाता में अपना ठिकाना बनाया। इस गुफा में उर्गम घाटी समेत पचंगे की नंदा स्वनूल जात यात्रा के लोग भी रात्रि विश्राम करते है। रात्रि को खाना पीना खाने के बाद समय व्यतीत और धार्मिक अर्चना के लिए हम लोगो ने जागर गायन शुरू कर दिया था, हममें से जागर वेता तो कोई नही था पर जनदेश द्वारा लिखित जागर पुस्तिका से जागर गायन किया जा रहा था। गुफा के बाहर बड़े जोरो की बारिश अभी भी हो रही थी। बस अब ऐसा लग रहा था यात्रा बीच में छोड़कर वापस जाना पड़ेगा। जागर गायन जारी था तभी श्री लक्ष्मण नेगी जी पर देवता अवतरित हो चुका था, एक बार को तो हममें से किसी को कुछ नही सूझ रहा था कि क्या करें, क्योकि उस समय वो भूम्याल देवता के अवतारी पुरुष नही थे। तभी हममें से किसी ने अगरबत्ती जला कर  पूजन शुरू किया और देवता ने बचन दिया कि आप लोगों की आगे की यात्रा पूरी और निष्कंटक होगी। उसके बाद लगभग रात 11 बजे तक हम लोग भगवान को याद कर सो गये थे, अब आपके हाथ में है। परन्तु जोर की बारिश रुकने का नाम नही ले रही थी।

क्रमश अगले भाग में...........

फ्यूला नारायण धाम जहाँ महिला ही करती है नारायण श्रृंगार

आप सभी पाठकों को नमस्कार। एक बार पुनः मेरे व्लाग को पढ़ने के लिए आप सभी का धन्यवाद अपना प्यार और स्नेह बनाये रखेंगे आप से ऐसी आशा है। 

आज आप सभी साथियों को एक बार पुनः उर्गम घाटी के भरकी ग्राम पंचायत के नारायण धाम फ्यूला नारायण धाम में ले चलता हूँ। प्रकृति केे अंचल में बसा यह स्थान बहुत ही सुरम्य, शांत व अनेकों प्रकार की पंछियों की कलरव से गुंजायमान रहता है। नारायण धाम में पहुँचने के लिए उर्गम घाटी के कल्पेश्वर महादेव मंदिर से  5 किमी पैदल रास्ता तय करके पहुँचा जा सकता है। अभी भरकी गाँव तक मोटर मार्ग निर्माणाधीन है। 
भरकी गाँव पर करते ही कुछ दूरी पर एक विशाल  भींगरखवे जल प्रपात है, जिसकी दूध के रंगों की लहरे काफी ऊँचाई से गिरती है। अधिकांशतया पहाड़ों का जल स्वच्छ और निर्मल होता है। जिसको बिना फ्यूरिफाइड किये बिना पिया जा सकता है। यहाँ से फ्यूलनारायन धाम के लिए चढ़ाई का रास्ता शुरू हो जाता है, परन्तु मार्ग सुगम है। जगह-जगह रास्ते में विनायक स्थापित किये गए है। जंगली पेड - पौधे राह चलते, पसीने से नहाये हुए राहगीर को अपने आँचल में समेटकर थकान को मिटा देती है। फ्यूलनारायन धाम समुद्रतल से लगभग 10,000 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। यहाँ पहुँचकर मन को शुकून और शांति का अहसास होता है। फ्यूलनारायन मंदिर के कपाट हर वर्ष श्रावण माह में खुलते हैं और नंदा अष्टमी के पर्व पर कपाट श्रद्धालुओं के लिए बन्द कर दिए जाते हैं। यहाँ वर्ष में केवल ढेड़ से दो माह तक ही भरकी, भैंठा के निवासियों के द्वारा प्रति वर्ष प्रति परिवार के अनुसार पूजा की जाती है। नारायण जी की यहाँ पर चतुर्भुज मूर्ति है। नारायण जी के भोग के लिए सत्तू और बाड़ी का भोग भी लगया जाता है। कपाट खोलने के दिन मंदिर के मुख्य द्वार के सामने बनी धूनी जिसमें नारायण जी का भोग, प्रसाद तैयार किया जाता है मंदिर के कपाट बंद होने तक निरन्तर जलती रहती है। मंदिर में नारायण जी के अलावा नंदा, स्वनूल, वनदेवीयों, पितृ देवताओं की पूजा भी पुजारी द्वारा की जाती है। भगवान नारायण के श्रृंगार के लिए नारायण जी की पुष्प बाटिका से फूल लाकर माला तैयार करने का अधिकार यहां पर जो महिला पुजारी होती है सिर्फ उनको ही है। जिनको यहाँ की भाषा में फूल्याण कहा जाता है। जो कि 10 वर्ष से कम की बालिका या 55 वर्ष की अधिक उम्र की महिला होती है। 




कल्पेश्वर महादेव उर्गम घाटी



यू तो सम्पूर्ण उत्तराखंड ही देवी -देवताओं का निवास स्थान माना जाता है। हर स्थान की अपनी कोई एक धार्मिक मान्यता और विशेषता है। इसी तरह जोशीमठ क्षेत्र की उर्गम घाटी भी अपने प्राकृतिक सौन्दर्य, धार्मिक पर्यटन और जैविक खेती के लिए अपनी एक विशेष पहचान रखती है  इस घाटी में पहुुँचनेे के लिये राजमार्ग हरिद्वार -बद्रीनाथ के हैैलंग  से 12 किमी0 की दूरी तय करके पहुँचा जा सकता है । हेलंग से देखने से लगता है कि आगे पूरी तरह पर्वतमालाएं होंगी, परन्तु हेलंग में उर्गम घाटी को जोड़ने वाले अलकनन्दा पर बने पुल को पार करते ही आगे बढ़ने पर उर्गम घाटी V के आकार में फैली हुई नजर आती है। चारों और से हरे भरे जंगलों के बीच बसे यहाँ के गाँव, जिसमें अभी भी कुछ पुराने परम्परागत तरीके के बनाये हुए घर , प्राकृतिक सौन्दर्य, झरने हर किसी को आकर्षित करते है। उर्गम घाटी में प्रकृति पर्यटन के साथ - साथ धार्मिक पर्यटन का भी अनूठा संगम है। पंचबद्री में ध्यान बद्री जी का मंदिर जहाँ पूर्व समय में बद्रीनाथ मंदिर के रावल जी बद्रीनाथ जी के कपाट खुलने व बन्द करने के समय पूजा करने आते थे, वर्तमान में इस मंदिर के पुजारी उर्गम घाटी के डिमरी जाति के लोग है। 
वही पंच केदार के पांचवें केदार श्री कल्पेश्वर महादेव का मंदिर भी आकर्षण का केंद्र है। कल्पेश्वर महादेव चट्टान के ऊपर गुफा में पांडवों द्वारा निर्मित मंदिर बताया जाता है। माना जाता है कि जब कुरुक्षेत्र में पांडवों के द्वारा अपने सगे संबंधियों को मारने के पश्चात अपने गौत्र हत्या को मिटाने हेतु  व्यास जी की सलाहनुसार भगवान शिव को मनाने लिए केदार क्षेत्र आये तो शिव पांडवों को देखते ही  रूप बदलकर अन्तर्ध्यान हो जाते थे, आगे -आगे शिव और पीछे-पीछे पांडव, कल्पेश्वर में इस जगह पर पांडवों ने शिव जी की जटा को छू लिया था, तो शिव जी ने अपने जटा को यही पर छोड़कर अन्तर्ध्यान हो गए। तब से पाँचवे केदार के रूप में भगवान शिव की इस स्थान पर पूजा होती है। मंदिर के पिछले भाग में कलेवर कुंड है जहाँ से श्रदालु जल लाकर भगवान शिव को चढ़ाते है। माना जाता है कि समुद्र मंथन के समय इस कलेवर कुण्ड के जल को समुद्र में मिलाकर समुद्र मंथन किया गया था। मंदिर के आस पास के गाँव देवग्राम, उर्गम में स्थानीय लोगों ने घाटी में बढ़ते पर्यटक की सुविधाओं के लिए होम स्टे बनाये गए है। धार्मिक पर्यटन के साथ ही इस घाटी में प्रकृति पर्यटन, बर्ड वाचिंग, ट्रैकिंग , कैम्पिग और शोधार्थियों के लिए बहुत अवसर है।




*हिस्वा ठेला इतिहास*

              हिस्वा ठेला ग्लेशियर
क्रमश हिस्वा ..............….💐💐💐💐💐
पहाड़ो में रात की कड़ाके की ठंड के बाद सुबह की गुनगुनी धूप सेकने का अलग ही आंनद होता है। पर आज सब को हिस्वा मंदिर के लिए श्रमदान करना था तो सुबह ही सभी साथी जल्दी उठकर अपने -अपने कामों में जुट चुके थे। कुछ लोग खाना बनाने में लगे थे तो बाकी सभी मंदिर और धर्मशाला निर्माण में लग चुके थे। यहाँ इतनी दूर हिस्वा देवता का एक बड़े पत्थर पर एक छोटा सा मंदिर है। लोक किवदंतियों के अनुसार प्राचीन समय में पैनखंडा के समीप एक तिमुण्डिया वीर ने मानव जाति को तहस नहस कर दिया था तब माँ भगवती ने इस वीर के तीनों सिरों को काट दिया था और तीनों सिर अलग -अलग दिशाओं में गिर गए एक सिर जोशीमठ, एक सिर सैलङ्ग और एक सिर उर्गम घाटी में गिरा। सिर अलग होने के बाद भी यह वीर जीवित हो उठा और उर्गम घाटी में नरसंहार करने लगा तब इस घाटी के भूमि के रक्षक भूमियाल देवता जिनको घंटाकर्ण के नाम से भी जाना जाता है, इस वीर के सिर को बाध्य यंत्र दमाउँ के अंदर बन्द कर अपने मंदिर में ले आये परन्तु मंदिर प्रांगण में पहुँचते ही यह वीर बाहर आ गया तब घंटाकर्ण जी द्वारा इस वीर को उर्गम घाटी वासियों द्वारा पूजा किये जाने, तथा गाँव से कोशों दूर हिस्वा बुग्याल में स्थापित किये जाने का वचन दिया गया तभी से उर्गम घाटी के लोगों के साथ -साथ घंटाकर्ण जी के पस्वा (अवतारी पुरुष) यहाँ पूजा करने आते है। यह स्थान बड़ा ही अद्भुद है। मंदिर के बायीं और से बहने वाली नदीअधिकांशतया ग्लेशियर से अटा हुआ होता है। Mobile price upto 10000 यहाँ से एक रास्ता खीरों पार करते हुऐ नीलकंठ से बद्रीनाथ तक पहुँचा जा सकता है । व गिन्नी ग्लेशियर भी यही से हो कर पहुँचा जा सकता है। 

हिस्वा ठेला बुग्याल उर्गम घाटी

 आप सभी पाठकों को नमस्कार काफी समय पहले अपना ये व्लाग बनाया था परन्तु किन्ही कारणों से शुरू नही कर पाया। आज पुनः कई सालों बाद इच्छा हुयी उत्तराखंड के जिस जगह में रह रहा हूँ उसके आस पास प्राकृतिक सौन्दर्यता की भरमार है। बस इसी सोच के साथ आप सब पाठकों के बीच इन्ही कहानियों के साथ आया करूँगा- आज से 1वर्ष पूर्व अपने गांव देवग्राम के युवाओं के साथ उर्गम घाटी के पास के बुग्याल हिस्वा ठेला की यात्रा की थी इसी यात्रा स्मरण को आपके साथ शेयर कर रहा हूँ 
जल्दी सुबह गाँव के सभी युवा तैयार हो कर अपने इस तीन दिवसीय यात्रा पर निकल चुके थे गाँव को पार करते ही कल्पेश्वर महादेव मंदिर और कल्पगंगा (हिरण्यवती) नदी के दाएं किनारे से चलते - चलते हुए जंगलों को पार करते हुए कल्पगंगा की कल-कल, और सुबह की चिड़ियों की चहचहाहट  की मधुर धुन के साथ हम लोग सुंदरवन पहुँच चुके थे। सुंदरवन में कल्पगंगा को लकड़ी के कच्चे पुल से पर करते हुए अब हम लोग घास के जंगल में पहुँच चुके थे । यहाँ पर पिछले कई वर्षों से एक साधु अपनी साधना में इस निर्जन वन में अपनी कुटिया में रहते है। सुंदरवन से आगे चढ़ाई शुरू हो जाती है, पगडंडी नुमा रास्ते के सहारे आगे बढ़ते 2 किमी घास के जंगल को पार करते हुए अब हम लोग रिंगाल के जंगलों में पहुँच चुके थे सब लोग अपने-अपने ग्रुप के साथ आगे बढ़ रहे थे, थकान मिटाने को सब लोग अपने ग्रुप के साथ बैठ कर कुछ देर आराम कर लेते। अब रिंगाल के जंगल में धूप नही थी पर रास्ता और भी खराब था झुरमुटों के अंदर से सब लोग आगे बढ़ते जा रहे थे। बस कही कही पर सुर्यदेव की किरणें इन झुरमुटों के बीच से दिख जाती, अब रिंगाल के जंगल कम होने लगे थे और बांज, खरशू, मोरु, थुनेर, देवदार के जंगल शुरू हो रहे थे, अब पगडंडी से नीचे बहती नदी भी ऊपर से 20 -25 मीटर गहरी दिखाई दे रही थी। रास्ता खतरनाक था। सभी साथी संभलकर आगे बढ़ रहे थे तभी सामने चट्टान का चटकीला रूप दिखाई दिया और नदी बड़े वेग से चट्टान के ऊपर से गुजरकर झरने का आकार लेती बह रही थी, सब साथी इस झरने को निहार रहे थे बडा ही सुंदर अलौकिक दृश्य वहाँ पर बन रहा था। तभी ग्रुप के किसी साथी ने बताया इसी झरने के दूसरी तरफ जो गुफानुमा आकृति दिख रही है। इस स्थान पर भुवनेश्वर महादेब जी का स्थान है , परन्तु वहाँ पहुँचने का स्थान नदी के दूसरे छोर से जाता है। परन्तु खतरनाक और फिसलन भरी गुफा तक हर कोई आसानी से नही पहुँच पाता। केदारखंड में अध्याय 55 में भुवनेश्वर महादेव जी का वर्णन किया गया है-
# तद्धों गिरिकनये वे नदी हैरण्यमती मता। तस्या वे दक्षिणे तीरे भृंगीश्वर इतिरित।।

आगे बढ़ते ही सामने एक बड़ा मैदान नजर आया जिसके किनारे से नदी बह रही थी , अब सभी को बड़े जोर से भूख भी लग रही थी, अब सभी ने यहाँ पर बैठकर अपना घर से लाया हुआ नास्ता किया और काफी टाइम बैठ कर प्राकृतिक सौन्दर्य का लुफ्त लिया। कुछ देर आराम करने के बाद पुनः से हम सब ने आगे बढ़ना शुरू किया एक बार फिर हल्की -हल्की चढ़ाई शुरू हो चुकी थी, पर मंजिल तक पहुँचने की इच्छाशक्ति और प्राकृतिक सौन्दर्य का संगम कदमों को आगे बढ़ने के लिए लालायित कर रहे थे। बस जहाँ भी जिसे हल्की थकान का आभास होता थोड़ी देर खड़े - खड़े सुस्ता लेते और फिर आगे बढ़ जाते। कुछ देर और चलने के बाद , उबड़- खाबड पगडंडी, छोटे-छोटे नदी नालों को पार करते- करते फिर से एक मैदान दिखाई दिया, अब हम लोगों ने यहाँ पर नदी पर लगाई बल्लियों के सहारे नदी को पार किया और सामने ऊपर बड़े से टॉप पर अब हमारी मंजिल साफ नजर आ रही थी, लग रहा था मुश्किल से 15 मिनिट में हम लोग वहाँ तक पहुँच जाएंगे। मन को अब बहुत खुसी मिल रही थी। अब ग्लेशियर शुरू हो चुके थे जगह-जगह नदी पर गिरे ग्लेशियर पुल का काम कर रहे थे। जैसे ही नदी पर बनें ग्लेशियर को पार कर अब हम लोग 90 डिग्री के चढ़ाई के रास्ते पर थे परन्तु अब एक -एक कदम चलना मुश्किल हो रहा था, पेड़ बिल्कुल कम हो गए थे। बस बुराँस के पेड़ की प्रजाति की तरह बुग्यालों में उगने वाले सेमरू के जंगल जो कि झाड़ीनुमा आकर में उगती है बस हर तरफ वही दिखाई दे रहे थे। लगभग हमको इस चढ़ाई को पार करने में आधा घण्टे लग गए। अब हम हिस्वा ठेला बुग्याल में पहुँच चुके थे। चारों तरफ मखमली घास के बुग्याल, जगह-जगह पसरे हिम ग्लेशियर मन को आन्नदित के रहें थे हम लोग अपनी मंजिल पर पहुँच चुके थे, शाम ढल चुकी थी। अंधेरा होने से पहले की लालिमा सामने पर्वतों की चोटियों पर छा चुकी थी। हमारे ग्रुप के जो साथी पहले पहुँच चुके थे उन्होंने रात्री व्यवस्था के लिए टेन्ट लगा कर चाय की व्यवस्था कर चुके थे। थकान भरी यात्रा के बाद अब मन बहुत प्रफुलित था। अब धीरे -धीरे अंधेरा बहुत गहराने लगा था और चाँदनी रात में हिम आच्छादित चोटियां अपने धवल रूप में मन को शकून दे रही थी। सभी साथी मैदान में अलाव के चारों और बैठ कर हिस्वा ठेला बुग्याल का आंनद ले रहे थे। 

रम्माण उत्सव: उत्तराखंड की सांस्कृतिक आत्मा की जीवंत अभिव्यक्ति

उत्तराखंड की पावन भूमि न केवल अपनी प्राकृतिक प्रकृति के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि यहां की लोक परंपराएं भी बेहद समृद्ध और विविधतापूर्ण हैं। ऐसी ...