रम्माण उत्सव: उत्तराखंड की सांस्कृतिक आत्मा की जीवंत अभिव्यक्ति

उत्तराखंड की पावन भूमि न केवल अपनी प्राकृतिक प्रकृति के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि यहां की लोक परंपराएं भी बेहद समृद्ध और विविधतापूर्ण हैं। ऐसी ही एक अद्भुत अप्रैल परंपरा है रम्माण उत्सव, जो हर साल जोशीमठ जिले के सलूड-डूंगरा गांव में माह के दौरान हर्षोल्लास के साथ बड़े पैमाने पर मनाया जाता है।

सांस्कृतिक विरासत द्वारा प्राप्त व्याख्या

रम्माण कोई साधारण उत्सव नहीं है, बल्कि यह एक गहन सांस्कृतिक अनुभव है। वर्ष 2009 में चित्रित चित्रों में इसे समसामयिक सांस्कृतिक विरासत अर्थात अमूर्त सांस्कृतिक विरासत के रूप में चित्रित किया गया है, जो वैश्विक महत्ता को चित्रित करती है।

रंग-बिरंगी प्रस्तुतियों का अद्भुत समागम


रम्माण उत्सव की आत्मा अपनी पारंपरिक प्रस्तुतियों में बसती है। इसमें 18 विशेष मुखौटे और 18 विभिन्न तालों का सहयोग देखा जाता है, जो इसे अन्य उत्सवों से अलग बनाता है। ढोल, दमाऊं और भंकोरे जैसे पारंपरिक वाद्ययंत्रों की धुनों पर कलाकार रंग-बिरंगी वेशभूषा में सजकर नाचते हैं और पूरे वातावरण को जीवंत बना देते हैं।

रामायण के स्मारकों का जीवंत मंचन

इस उत्सव के दौरान रामायण की प्रमुख घटनाएं - जैसे राम जन्म, वनगमन, स्वर्ण मृग वध, सीता हरण और लंका दहन - का मंचन ही रोचक और रूप में किया गया है। ढोल की थापों और भावपूर्ण अभिनय से इन प्रसंगों को ऐसे प्रस्तुत किया जाता है कि दर्शक उन्हें खो देते हैं।

लोक कला और नृत्य नाटक का जादू

रामानुज उत्सव में कुरु जोगी, बनियान-बन्या और माल जैसे विशिष्ट लोक कलाकारों के कलाकार भी विशेष आकर्षण का केंद्र होते हैं। इसके साथ ही मायर-मुरैण नृत्य नाटिका के माध्यम से पत्थरों के आक्रमण का चित्रण अत्यंत रोचक और दर्शनीय होता है।

संस्कृति की जड़ से पर्यटन पर्व

रम्माण उत्सव केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यह एक ऐसा उत्सव है जो उत्तराखंड की गहराई से जुड़े संप्रदाय, जनजीवन और लोककला को जीवंत बनाता है। यह पर्व पीढ़ी दर पीढ़ी न केवल संरक्षित है, बल्कि गांव के हर व्यक्ति की आस्था और आत्मीयता स्थापित हो रही है।

गढ़वाली व्यंजन (Gadhwali vaynjan))

उत्तराखंड की प्राकृतिक सुंदरता दुनिया से छिपी नहीं है। उसी तरह पहाड़ी व्यंजनों का अपना अलग ही महत्व है। लेकिन आधुनिकता के इस दौर में स्वादिष्ट पहाड़ी व्यंजन विलुप्ति होने के कगार पर है। 

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मंडवे की रोटी: 
मंडवे की रोटी गढ़वाल में सबसे अधिक खायी जाने वाली रोटी है। उत्तराखंड के लोग अक्सर जाडों के मौसम में चूल्हे में मंडवे की मोटी-मोटी रोटी बनाते है और तिल या भांग की चटनी के साथ या घी के साथ खाते है। मंडवे में पोष्टिकता की मात्रा होती है।

Womem and man clothes अरसा: अक्सर शादी ब्याह के मौकों पर घरों में अरसे बनाये जाते है। इसके लिए पहले चावलों को भिगोकर ओखली में आटे की तरह बारीक कूटा जाता है। फिर हल्के गुनगुने पानी में गुड के साथ चावल का ये पिसा आटा मिलाया जाता है, उसके बिस्कुट के आकार में बाद उबलते हुए तेल में पकाया जाता है। 

झंगोरे की खीर: झंगोरे की खीर भी चावल के खीर की तरह बनायी जाती है। अपने बारीक दानों, पोष्टिक तत्वों और लाजवाब स्वाद की वजह से झंगोरे की खीर की सराहना पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी, ब्रिटेन के प्रिंस चार्ल्स व उनकी पत्नी कैमिला पारकर तथा पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी भी कर चुके हैं। 

कंडाली का साग: पहाड़ों में आसानी से उपलब्ध होनी वाली कंडाली एक तरह से हरी पत्तीदार सब्जी की तरह है। कंडाली के पत्तो को तोड़कर इसे अच्छी तरह धोकर, पानी में उबालकर पकाया जाता है। फिर इसके सुई जैसे काँटों को छिलकर लोहे की कढ़ाई में फ्राई करके साग तैयार किया जाता है। अधिकांशतया इसे जाड़ों के मौसम में बनाया जाता है। 

चैसा: इसमें भट्ट और उड़द दाल को पीसकर गाढ़ा पकाया जाता है। इसके स्वाद को बढ़ाने के लिए इसमें टमाटर, प्याज, अदरक का पेस्ट बनाकर पकाया जाता है। चैसा अधिकतर दिन में चावल के साथ खूब पसन्द किया जाता है। 

भाँगजीरे की चटनी: आप अगर उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में हैं। भांगजीरे की चटनी आपके खाने को स्वादिष्ट बनाती है। इसमें शुद्ध पहाड़ी मसाले , खट्टा-नमकीन-तीखा फ्लेवर सभी तरह के परांठे और मंडवे की रोटी के साथ - साथ किसी तरह के खाने में जबरदस्त स्वाद ओर जायका देता है। 

चौलाई की सब्जी: पहाड़ी क्षत्रों में घूम रहे हो तो आप चौलाई की सब्जी का स्वाद ले सकते हैं। चौलाई की सब्जी जितनी स्वादिस्ट होती है इसके फायदे भी कई है विटामिन A जिससे आँखों की रोशनी बढ़ती है,कैल्शियम की मात्रा भरपूर होती है। ये सब्जी पहाड़ों में जून -जुलाई के मौसम में आसानी से उपलब्ध होती है। 

चौलाई की रोटी : चौलाई का आटा तैयार कर पहाड़ों में अक्सर जाडों के मौसम में चूल्हे में चौलाई की रोटी बनाते हैं।  चौलाई में पोष्टिकता की मात्रा होती है। 

उर्गम घाटी (urgam valley) धार्मिक व प्रकृति पर्यटन का अनूठा संगम


राष्ट्रीय राजमार्ग 58 पर ऋषिकेश से हेलंग 240 किमी (जोशीमठ से 13 किमी पहले) दूरी तय करने के बाद यहाँ पर बद्रीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग को छोड़कर बायीं ओर मुड़ने के साथ ही अलकनंदा नदी बद्रीनाथ से निकलने वाली, कर्मनाशा नदी प्रणखंडेश्वरी गड़ी माता मंदिर के पश्चिम भाग से बहने वाली और उर्गम के कल्पेश्वर महादेव से निकलने वाली नदी कल्पगंगा जिन्हें हिरण्यावती के नाम से भी जाना जाता है, के संगम त्रिवैणी पर बने पुल को पार करते ही उर्गम घाटी की सुरम्य वादियों में पहुँच जाते है। हेलंग से उर्गम तक पहुँचने के लिए 14 किमी जीप या छोटी गाड़ियों से आसानी से पहुँचा जा सकता है। Realme mobile


रास्ते के जंगल जिसमें प्रमुखतः चीड़, बांज, बुराँस  के पेड़ों को पार करते ही ल्यांरी गाँव पहुँचने पर सामने उर्गम घाटी का बड़ा ही सुन्दर मनोरम दृश्य नजर आने लगता है। दूर-दूर तक फैले हुए गाँव, समतल घाटी और प्रकृति का हरितिमा ओढ़े हुए नजारा बड़ा ही खूबसूरत दिखता है। 

समुद्रतल से लगभग 2,100 मीटर की ऊँचाई पर बसी हुई उर्गम घाटी की जनसंख्या लगभग 5000 है। इस घाटी में पाँच ग्राम पंचायतें है, जिसमें 15 उपगाँव हैं। देवग्राम के बांसा गाँव में उर्वा ऋषि आश्रम है, जहाँ पर ऋषि और्वा ने तपस्या की थी उन्ही के नाम पर इस घाटी का नाम उर्गम पड़ा। गढ़वाल का प्रारंभिक इतिहास कत्यूरी राजाओं का है, जिन्होंने जोशीमठ से शासन किया और वहां से 11वीं सदी में अल्मोड़ा चले गये। गढ़वाल से उनके हटने से कई छोटे गढ़पतियों का उदय हुआ। Man tshirt combo pack उर्गम घाटी से लगभग 5 किमी दूरी पर पहाड़ की चोटी पर पल्ला गढ में आज भी पत्थरों के खंडहर, किलेनुमा छोटे-छोटे घर, बड़े पत्थर पर बनायी गयी ओखलिया, ल्यारी गाँव के पास मुख्य सड़क पर बना हुआ पंचधारा (पत्थरों से बनी हुई पाँच पानी की धारा) और कल्पेश्वर मंदिर से 2 किमी ऊपर भरकी गाँव से पहले दोगड़ा गाँव में बूंगी गढ़ बड़े-बड़े कटे हुए पत्थरों के अवशेष खंडहर कत्यूरी शासकों के इतिहास को ताजा करता है।


उर्गम घाटी प्रकृति पर्यटन के साथ-साथ धार्मिक पर्यटन के लिए भी प्रसिद्ध है। पंचबद्री के ध्यानबद्री बद्री जी का मंदिर उर्गम गाँव में मुख्य सड़क से 300 मीटर की दूरी पर स्थित है। मंदिर में भगवान विष्णु जी की मूर्ती, वाल कृष्ण जी  और गरुड़ जी स्थापित है। मंदिर में कृष्ण जन्माष्टमी का पर्व बड़े उत्सव के साथ मनाया जाता है। मंदिर के दाहिने ओर शिव जी का मन्दिर भी बना हुआ है। उर्गम घाटी के हर दूसरे वर्ष होने वाले चौपता मेले में मंदिर से ही कृष्ण जी और गरुड़ जी मूर्ति मेले के आकर्षण का केंद्र होती है। यही पर 200 मीटर की दूरी पर भूमि क्षेत्रपाल श्री घंटाकर्ण जी का मंदिर भी है। यहाँ से 1 किमी की दूरी पर देवग्राम गाँव है।

देवग्राम के पास ही पंचकेदार के पाँचवे केदार श्री कल्पेश्वर महादेव जी का प्रसिद्ध मंंदिर है। जो कि पाण्डवों द्वारा एक बड़े गुफा मे मन्दिर स्थापित किया गया है। कल्पेश्वर मंदिर के पूर्व के पूर्व में कल्पगंगा के तट पर प्रसिद्ध भैरवनाथ जी का मंदिर भी है।  विस्तृत जानकारी के लिए पूर्व में कल्पेश्वर मंदिर पर लिखे गए लेख का लिंक देखें।


लोकमान्यताओ के अनुसार देवग्राम गाँव में देवी देवताओं के 360 से अधिक मंदिर थे। इसीलिये यहाँ का नाम देवग्राम पड़ा, परन्तु 1803 से पहले धौला से आयी आपदा के कारण सारे मंदिर मलबे में दब गये थे। बाद में खुदाई के दौरान मिले 100 से अधिक पत्थर की मूर्तियों को देवग्राम के गौरा मंदिर में रखे गये थे। परन्तु वर्ष 2013 की आपदा के बाद से अब कुछ ही मूर्तियाँ मंदिर में बचीं हुई है। मंदिर में आज भी एक बहुत बड़े विशालकाय पत्थर से बना हुआ शेर की मूर्ति भी विराजमान है। यही पर एक विशाल देवदार का हजारों वर्ष पुराना कल्पवृक्ष भी है।

 देवग्राम गाँव के पूर्व में केदार मंदिर है, यहाँ पर शिवलिंग की आकृति केदारनाथ मंदिर के शिवलिंग की तरह है। पूर्व में यहाँ पर एक जल कुण्ड हुआ करता था, और जो परिवार बद्रीनाथ और केदारनाथ की यात्रा नही कर पाते थे, यही पर अपने पित्रों का तर्पण करते थे। गाँव के बीच में ही अमृत कुण्ड का पवित्र कुण्ड व दुर्मा तोक मे दुर्वासा ऋषि का आश्रम था, यही पर देवराज इन्द्र को श्राप मिला था। तब इन्द्र ने भवँरे का रूप धारण कर देवग्राम के ऊपरी भाग में एक गुफा में तप किया था, गुफा आज भी विद्यमान है। यहाँ पर रति कुण्ड में कामदेव को वापस पाने के लिए देवी रति ने शिव जी की तपस्या की थी। इन सबका वर्णन केदारखण्ड में भी दिया गया है।
Women clothes लोक संस्कृति की धनी इस घाटी में वर्षभर किसी न किसी तरह के लोक मेले आयोजित होते है, जिसमें प्रमुखतः जागर गायन व ढोल बादन के द्वारा देवरा मेले, मनो मेले, चौपता मेला, नाग सिद्ववा, जीतू बगडवाल व पांडव नृत्य, नंदा जात मेला व नो दिवसीय शिव गौरा विवाह मेले आयोजित होते हैं। 

जैविक उत्पाद के लिए भी उर्गम घाटी काफी मशहूर है, जिसमें जैविक दालें राजमा, चौलाई, सोयावीन, मंडुवा, शहद के साथ-साथ कई तरह की औषधीय जड़ी -बूटियाँ भी उत्पादन होती है। यहाँ पहुँचकर पहाड़ी शुद्ध लजीज खाने का आनन्द लिया जा सकता है। अप्रैल मई के बाद यहाँ का मौसम सुहावना हो जाता है , वही अक्टूबर के बाद ठंड बढ़ने के साथ-साथ दिसम्बर जनवरी में बर्फबारी भी शुरू हो जाती है। 

बंशीनारायन मंदिर जहाँ साल भर में एक दिन खुलते है कपाट

                   बंशीनारायन मंदिर
वंशीनारायन मंदिर चमोली जिले के उर्गम घाटी से लगभग 13 हजार फीट की ऊंचाई पर मध्य हिमालय के बुग्याल क्षेत्र में स्थित है। मान्याता है कि इस मंदिर में देवऋषि नारद 364 दिन भगवान नारायण की पूजा अर्चना करते हैं और यहां पर मनुष्यों को पूजा करने का अधिकार सिर्फ एक दिन के लिए ही है। 
 उर्गम घाटी में स्थित भगवान विष्णु के वंशीनारायन मंदिर जो सिर्फ रक्षा बंधन के मौके पर ही खुलता है। मंदिर तक पहुंचने के लिए लगभग 12 किमी तक पैदल चलना होता है। रक्षा बंधन के दिन यहां महिलाओं की बहुत भीड़ रहती हैं क्योंकि, महिलाएं इस दिन भगवान विष्णु को राखी बांधने यहां पहुंचती है । 
उर्गम घाटी तक वाहन से पहुंचने के बाद आगे 12 किलोमीटर का सफर पैदल ट्रेक करना पड़ता है। पांच किलोमीटर दूर तक फैले मखमली घास के मैदानों, बुग्याल को पार कर सामने नजर आता है प्रसिद्ध पहाड़ी शैली कत्यूरी में बना वंशीनारायन मंदिर में भगवान विष्णु जी की चतुर्भुज मूर्ति विराजमान है। यहां मंदिर के पुजारी राजपूत है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इस मंदिर का निर्माण पांडव काल में हुआ था। लोक कथानुसार एक बार राजा बलि ने भगवान विष्णु से आग्रह किया कि वह उनके द्वारपाल बने।भगवान विष्णु ने राजा बलि के इस आग्रह को स्वीकार कर लिया और वह राजा बलि के साथ पाताल लोक चले गए। भगवान विष्णु के कई दिनों तक दर्शन न होने कारण माता लक्ष्मी परेशान हो गई और वह नारद मुनि के पास गई। 
                      उर्गम घाटी
नारद मुनि के पास पहुंचकर उन्होंने माता लक्ष्मी से पूछा के भगवान विष्णु कहां पर है। जिसके बाद नारद मुनि ने माता लक्ष्मी को बताया कि वह पाताल लोक में हैं और द्वारपाल बने हुए हैं। नारद मुनि ने माता लक्ष्मी को भगवान विष्णु को वापस लाने का उपाय भी बताया । उन्होंने कहा कि आप श्रावण मास की पूर्णिमा को पाताल लोक में जाएं और राजा बलि की कलाई पर रक्षासूत्र बांध दें। रक्षासूत्र बांधने के बाद राजा बलि से वापस उन्हें मांग लें। इस पर माता लक्ष्मी ने कहां कि मुझे पाताल लोक जानें का रास्ता नहीं पता क्या आप मेरे साथ पाताल लोक चलेंगे। इस पर उन्होंने माता लक्ष्मी के आग्रह को स्वीकार कर लिया और वह उनके साथ पाताल लोक चले गए। 
पति को मुक्त कराने के लिए देवी लक्ष्मी पाताल लोक पहुंची और राजा बलि के राखी बांधकर भगवान को मुक्त कराया। जिसके बाद नारद मुनि की अनुपस्थिति में कलगोठ गांव के पुजारी ने वंशीनारायण की पूजा की तब से ही यह परंपरा चली आ रही है। रक्षाबंधन के दिन कलगोठ गांव के प्रत्येक घर से भगवान नारायण के लिए मक्खन, दूध और सत्तू आता है। इसी से वहां पर प्रसाद तैयार होता है। भगवान वंशीनारायन की फूलवारी में कई दुर्लभ प्रजाति के फूल खिलते हैं। इस मंदिर में 
श्रावन पूर्णिमा पर भगवान नारायण का श्रृंगार भी होता है। इसके बाद गांव के लोग भगवान नारायण को रक्षासूत्र बांधते हैं। मंदिर में ठाकुर जाति के पुजारी होते हैं। चमोली जिले के उर्गम घाटी में स्थित “वंशीनारायन मंदिर की खास बात यह है कि इस मंदिर की प्रतिमा में भगवान नारायण और भगवान शिव दोनों के ही दर्शन होते हैं। वंशी नारायण मंदिर में भगवान गणेश और वन देवियों की मूर्तियां भी मौजूद हैं।

बंशीनारायन कैसे पहुँचे:-

ऋषिकेश से जोशीमठ की दूरी लगभग 255 किमी तक बस, बाइक व अन्य मोटर वाहन के माध्यम से पंहुचा जा सकता है। जोशीमठ पहुँचने से 13 किमी पूर्व हेलंग से उर्गम घाटी तक 14 किमी जीप या छोटे वाहनों से पहुंचा जा सकता है। इस घाटी में पर्यटकों की सुविधा हेतु स्थानीय लोगों के होम स्टे उपलब्ध है।
 उर्गम, देवग्राम से लगभग 12 किमी पैदल चलकर वंशिनारायन मंदिर पहुँचा जा सकता है।

उर्गम से नन्दीकुंड, पाण्डवसेरा मद्यमहेश्वर यात्रा शेष भाग.......


शाम के लगभग 3.00 बज चुके थे हम लोगों ने नन्दीकुंड सरोवर पर कुछ देर रुककर प्रकृति का आनन्द लिया।यहाँ मां नंदा का बहुत ही दिव्य स्थान है, उर्गम घाटी में जब भी कोई बड़े मेलों का आयोजन किया जाता है तो उस वर्ष ब्रह्म कमल लेने को और मेले हेतु माँ नंदा का बुलावे हेतु नंदा राज जात यहाँ आती है। सरोवर में स्नान और माँ का ध्यान कर अब हम निकलने की तैयारी में थे तो एक बार फिर से बहुत जोरो की बारिश होनी शुरू हो चुकी थी। माना जाता है कि इस स्थान पर ज्यादा देर रुकना नही चाहिए। तेज होती जा रही बारिश से हम लोग अब सरोवर के एक किनारे से बाहर निकलने वाले पानी के सहारे नीचे की तरफ तेज -तेज कदमों के साथ बढ़ रहे थे। हम लोग काफी भीग चुके थे ढ़लान पर  नन्दीकुंड सरोवर से काफी दूर पहुँचने के बाद हम लोगों ने थोड़ा आराम के लिए एक छोटे गुफानुमा पत्थर की ओट ढूंढ ली थी और अब वहाँ पर बैठकर बारिश के थमने का इंतजार करने लगें। बारिश से तरबतर और ठंड से काँपने के बाद भी थकान के कारण और पत्थर के ओट की हल्की  गर्मी मिलने के कारण हल्की आँखे भी लग रही थी। लगभग 1 घण्टे इंतजार के बाद अब बारिश रुक चुकी थी। और हमें आज रात के लिए पाण्डवसेरा पहुँचना जरूरी था क्योकि नन्दीकुंड से पाण्डवसेरा के बीच में रुकने के लिए कही कोई आश्रय नही था। अब लगभग 5 बज चुके थे, थोड़ी देर ढलान पर और चलने के बाद पाण्डवसेरा नदी और मैदान दिखाई दिया तो आज की मंजिल पर जल्दी पहुँचने की आस बंध चुकी थी। पर हम लोग जैसे ही नदी तक पहुँचे तो एक बार फिर निराशा हाथ लगी कि नदी का अस्थायी पुल बह चुका था,पानी काफी ज्यादा और तेज बहाव में था। फिर हम लोग चौड़ी घाटी को खोजने लगे, काफी देर बाद हमको एक जगह पर नदी कुछ समतल और चौड़ी दिखायी दी तो सबने एक दूसरे के हाथों को कसकर पकड़कर एक चैन बनाकर नदी में उतर गए। पानी लगभग घुटनों तक आ रहा था परन्तु चैन बनाकर चलने से नदी को आसानी से पार कर लिया था। अब लगभग अंधेरा होने लगा था तो हम लोगों ने जल्दी-जल्दी पाण्डवसेरा गुफा को ढूंढ लिया था। 
खुशकिस्मती से गुफा में कुछ सूखी लकड़ियां मिल गयी तो आग का प्रबन्ध भी कर लिया, जो यहाँ पर रहने वाले बकरी के चरवाहों ने किया था होगा। लकड़ियां कम थी तो हममें से कुछ लोग आस -पास लकड़ियां इक्कठा करने में लग गए और कुछ लोग चाय बनानें में। अंधेरा हो चुका था, अब बदन के बारिश से गीले हो चुके कपड़े भी आग के सहारे सूख चुके थे। अब सब लोग खाना बनाने में जुट चुके थे। सभी लोग चुटकुले व यात्रा के खट्टे मीठे अनुभवों को साझा कर रहे थे। 
अगले दिन सुबह उठकर पुनः आगे की यात्रा से पूर्व नास्ता तैयार कर पास के गुफा को ढूंढा गया । जहाँ कुछ पुराने सिक्के व पांडवों के अस्त्र -शस्त्र रखे हुए है। माना जाता है कि शिब जी की खोज में मद्यमहेश्वर के बाद जब पांडव शिब जी के पीछे-पीछे यहां तक पहुँचे थे तो इस जगह पर पांडवो ने अन्न के रूप में धान उपजाया था। तभी से इस जगह का नाम पाण्डवसेरा पड़ा। आज भी जिस तरह धान की रोपाई हेतु खेत तैयार किया जाता है, ठीक उसी तरह यहां भी दिखता है। अब हम आगे बढ़ चुके थे पर डर था कि पाण्डवसेरा के दूसरी तरफ वाले नदी में भी पुल बह गया हो तो वहाँ नदी पार करना मुश्किल हो जायेगा, क्योकि साथ में गाईड का काम कर रहे मातवर सिंह चौहान ने बताया कि उस तरफ की नदी एकदम चट्टान वाली ढाल में बहुत तेज बहाव से बहती है, और घाटी बहुत संकरी है। पर जब हम नदी पर पहुँचे तो नदी पर बना अस्थायी लकड़ी का पुल मौजूद था। अगर यहाँ पर पुल नही होता तो हमें शायद वही से वापस नन्दीकुंड से होते हुए वापस आना पड़ सकता था, जो कि बहुत मुस्किल होता। यहाँ से एकबार फिर चढ़ाई का रास्ता शुरू हो चुका था पर यहाँ से रास्ता चौड़ा और एकदम खड़ी चढ़ाई ना होकर कैचींनुमा बना हुआ है। अब हम लोग काफी चलने के बाद काँचनी टॉप पर पहुँच चुके थे। पास के चट्टानों पर घुरड़ दिखायी दे रहें थे।और कुछ मोनाल आसपास हलचल होने पर आवाज करते हुऐ हल्के आसमान में उड़ रहे थे। कुछ देर आराम करने के बाद अब आगे का रास्ता अब हमें मद्यमहेश्वर के ऊपरी भाग के जंगल से होकर पहुँचना था। अब हम कुछ ही देर में मद्यमहेश्वर पहुँचने वाले थे, रास्ता काफी आसान सा हो गया था चलने के लिए। कुछ देर में मद्यमहेश्वर मंदिर में पहुँच कर दर्शन किये वहाँ पुजारी जी से बातें की और दर्शन के बाद पास के ढाबे पर बैठकर चाय पी। समय भी लगभग शाम के 5 बज चुके थे। उसके बाद हम लोग राँसी गाँव के लिए आगे बढ़ चुके थे। रात के लगभग 8 बज चुके थे जब हम अपने चन्द्रप्रकाश पँवार जी के जान पहचान के घर में पहुँचे। अब थकान भी काफी थी आज लंबा रास्ता तय किया था। फिर भी विना पूर्व सूचना के द्वारा उनके द्वारा किया गया अथिति सत्कार आजीवन याद रहेगा। अगले दिन प्रातः उठकर हम लोग कालीमठ के लिए निकल चुके थे।
         फैन कमल

उर्गम से नन्दीकुंड, पाण्डवसेरा मद्यमहेश्वर यात्रा शेष भाग.......


रात देर तक जागने और पिछले दिन की यात्रा के कारण थके होने से आज नींद कुछ देर से खुली। मौसम साफ होने लगा था तो फिर से आज अगले पड़ाव तक जाने का प्लान बना तो, फटाफट सबने मिलकर नास्ता तैयार किया कुछ नास्ता दिन के लिए पैकिंग कर लिया गया। नास्ता करके आगे बढ़ने तक समय काफी निकल चुका था, और यही हम सबका प्लान भी था कि आज ज्यादा दूर तक नही चला जाय क्योंकि बारिश कही ज्यादा हुई तो हम लोग वापस आ सकते हैं। ज्यादा आगे बढ़ जाने से वापस आना भी खतरनाक होगा क्योंकि आगे जो नदियां हम लोगों को पार करनी थी , बारिश के कारण नदी का जल स्तर बढ़ने से पार कर पाना कठिन होता है।पर अब मौसम खुलना शुरू हो चुका था सुर्यदेव भी बादलों के बीच अटखेलियाँ खेल रहे थे। अब हम लोग मैंनवा खाल तक पहुँच चुके थे, आस पास नीचे गहरी घाटी दिखाई दे रहे थे। बस चारों तरफ मखमली घास का बुग्याल दिखायी दे रहे थे, जो कि बहुत मुलायम और नर्म थी। मैंनवा खाल में नंदा राजजात के दौरान उर्गम घाटी की और पंचगे की जात भी होती है। मैंनवा खाल के पास ही ब्रह्म कमल की सुंदर वाटिकाये है। जुलाई के बाद अनेक प्रकार के पुष्प यहाँ खिल जाते है। मैंनवा खाल के एक तरफ नीचे दो बहुत सुंदर तालाब है जिन्हें नंदी कुंड और स्वनूल कुंड के नाम से जाना जाता है। 


यहाँ से अब हम बुग्याल के बीचों बीच सीधी पगडंडी को पकड़ कर आगे बढ़ रहे थे, कुछ ही देर में हमने गोदिला नही पर बने लकड़ी के पुल को पार कर यहाँ पर हल्का नास्ता किया। अब यहाँ से धौलडार तक हल्की चढ़ाई का रास्ता शुरू हो चुका था। धीरे- धीरे ही सही पर अब हम आज की मंजिल तक पहुँच चुके थे। यहाँ पर भी बहुत बड़ा मखमली बुग्याल है, परन्तु हमारे पास टेन्ट न होने के कारण हम लोगो ने मैदान के एक छोर पर बने प्राकृतिक उड़्यार (गुफा) जिसे धौलडार के नाम से जाना जाता है, आज के लिए अपना ठिकाना बना लिया था। और आस पास से ही लकड़ी, पानी की व्यस्था कर लिया। 

            (फोटो साभार# रघुवीर सिंह नेगी)

इसी मैदान के बीच में ही पालसियों (बकरी चरवाहों) का टेन्ट लगा था। अभी यही कोई शाम के 4.00 बज रहा था और बकरियों का झुण्ड मैदान के ऊपर ढलानों पर चुग रही थी, हम लोग यह सोचकर कि चलो थकान मिटाने के लिए पालसियों के टेन्ट पर जाकर चाय पी लिया जाए पर जब हम वहाँ पहुँचे टेन्ट के बाहर सिर्फ एक कुत्ता बैठा था । पालसी अपनी बकरियों के साथ थे। दूर से ही अपने टेन्ट के पास हम लोंगो को देखकर उनमें से एक कुछ ही देर में अपने टेन्ट में आ गए थे, अरे वो रिस्ते में मेरे मामा जी थे जो डुमक गाँव से थे । आज वो इस दुनियाँ में नही है। उनके आते ही हम सब लोगों ने वही पर चाय पी। अब हल्की बारिश शुरू हो चुकी थी। थोड़ी देर में मैदान में सब बकरियां आ गयी थी और वो दूसरे वाले पालसी भी। अब हमारे आज रात के खाने का इंतजाम भी उन्ही के साथ उनके टेन्ट में हो गया था। रात लगभग 9 बजे हम लोग खाना खा कर सोने के लिए वापस धौलडार गुफा में आ गए। हल्की बारिश अभी भी हो रही थी, परन्तु बुग्यालों में कब बारिश हो जाये इसका कोई पता नही रहता। आज के दिन का हम लोगों का पड़ाव छोटा था वो सिर्फ  आगे के मौसम के अंदाजे के लिए की आगे की यात्रा में बारिश कितनी होने वाली है। अगली सुबह फिर से मौसम सुहावना हो चुका था हम लोग सुबह 5 बजे तैयार हो कर आगे के सफर के लिए निकल चुके थे। आज नास्ता नन्दीकुंड पहुँचने के बाद किया जाएगा। हाँ रास्ते की थकान और भूख मिटाने के लिए हमारे पास खाने पीने के लिए पर्याप्त संसाधन थे।

क्रमशः अगले भाग में................

 

उर्गम से नन्दीकुंड, पाण्डवसेरा मद्यमहेश्वर यात्रा


स्मृतियों के पन्नों से...............

वर्ष 2006 की स्मृतियां मन में ताजी हो गयी, जब हम सभी साथी एक साथ काम करते थे तब सब ने मिलकर प्लान तैयार किया कि क्यों न इस वर्ष उर्गम घाटी से नन्दीकुंड, पाण्डवसेरा होते हुए मद्यमहेश्वर और पंचकेदार ट्रैकिंग की जाये। सभी साथियों ने हामी भरी तो तैयारियां भी शुरू हो गयी। इस यात्रा का प्रस्ताव जनदेश के सचिव श्री लक्ष्मण सिंह नेगी जी ने दिया, जो एक बहुत ही जागरूक स्वयंसेवी, धार्मिक और सामाजिक कार्यों के प्रति समर्पित हैं, और वर्तमान में भरकी भूम्याल देवता के पस्वा है। जिन महानुभाव ने सामान इकट्ठा करने में हम सबका सहयोग किया श्री रघुवीर चौहान जी वो अपने कुछ व्यकितगत कारणों से इस ट्रैकिंग को नही कर पाएक। Mobile price upto 10000 इस ट्रैकिंग को करने वालों में हमारे साथी श्री हरीश परमार जी,  जो उसके बाद अपनी ग्राम पंचायत के ग्राम प्रधान और वर्तमान में व्लाक प्रमुख जोशीमठ हैं। दूसरे साथी श्री चन्द्रप्रकाश पँवार जी जिनको हम डॉक्टर साहब के नाम से भी बुलाते है और आज एक शिक्षक के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे है, तीसरे साथी श्री बख्तावर सिंह रावत जी एक अच्छे समाजसेवी के रूप में आपकी पहचान है। और चौथे साथी एक गुरुदेव बसिष्ठ जी थे जो प्राथमिक विद्यालय भरकी में पढ़ाते थे। अब हममें से कभी किसी ने इस ट्रैक को पहले नही किया था तो गाइड के लिए देवग्राम गाँव के श्री मातवर सिंह चौहान को इस यात्रा के लिए गाइड के लिए साथ ले लिया था। मैं इस यात्रा में उम्र,अनुभव और तजुर्बों के आधार पर सबसे छोटा था, परन्तु आप लोगों के साथ तब से लेकर और आज तक आप लोगों के प्यार और स्नेह के कारण कभी ये अहसास ही नही हुआ।


यू तो ये मेरी इतनी लम्बी पहली पैदल यात्रा थी जो  मेरे लिए बेहद ही अविस्मरणीय और रोमांचक थी। सुबह लगभग 10 बजे करीब सभी साथी तैयार हो कर अपने यात्रा पथ पर निकल चुके थे। ऋषि ओरबा की तपोभूमि देवग्राम का बांसा गाँव, जिनकें नाम पर ही इस घाटी का नाम उर्गम नाम से जाना जाता है, से होते हुए मुल्ला खर्क और बरजीक नाले की चढ़ाई को पार करते हुए आगे बढ़ चुके थे। बरजीक टॉप के बाद भोजपत्र के और सेमरू जो की बुराँस प्रजाति की झाड़ी शुरू हो चुकी थी , पार कर हम लोग बंशीनारायन मंदिर में पहुँच चुके थे पर बारिश बहुत जोरो की शुरू हो चुकी थी और हम लोग कुछ निराश भी की आगे कैसे बढेंगे और उच्च हिमालयी बुग्याल में इस सितम्बर के माह में बर्फ गिरनी शुरू हो जाती है। और आगे की यात्रा और भी कठिन फिर मंदिर में दर्शन पूजन के पश्चात हम लोगो ने रात्रि विश्राम हेतु बंशीनारायन के समीप रिखडार उड़ियार जिसे गुफा कहा जाता में अपना ठिकाना बनाया। इस गुफा में उर्गम घाटी समेत पचंगे की नंदा स्वनूल जात यात्रा के लोग भी रात्रि विश्राम करते है। रात्रि को खाना पीना खाने के बाद समय व्यतीत और धार्मिक अर्चना के लिए हम लोगो ने जागर गायन शुरू कर दिया था, हममें से जागर वेता तो कोई नही था पर जनदेश द्वारा लिखित जागर पुस्तिका से जागर गायन किया जा रहा था। गुफा के बाहर बड़े जोरो की बारिश अभी भी हो रही थी। बस अब ऐसा लग रहा था यात्रा बीच में छोड़कर वापस जाना पड़ेगा। जागर गायन जारी था तभी श्री लक्ष्मण नेगी जी पर देवता अवतरित हो चुका था, एक बार को तो हममें से किसी को कुछ नही सूझ रहा था कि क्या करें, क्योकि उस समय वो भूम्याल देवता के अवतारी पुरुष नही थे। तभी हममें से किसी ने अगरबत्ती जला कर  पूजन शुरू किया और देवता ने बचन दिया कि आप लोगों की आगे की यात्रा पूरी और निष्कंटक होगी। उसके बाद लगभग रात 11 बजे तक हम लोग भगवान को याद कर सो गये थे, अब आपके हाथ में है। परन्तु जोर की बारिश रुकने का नाम नही ले रही थी।

क्रमश अगले भाग में...........

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